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जीवन यात्रा में प्रेम और भक्ति

जीवन यात्रा में प्रेम और भक्ति

ईश्वर की इस सृष्टि में प्रेम ही एक शक्ति है जिससे समस्त संसार संचालित है। मानव जीवन में प्रेम हमारी ऊर्जा है जो हमें सांसारिक  कामनाओं से लेकर भक्ति के परम शिखर तक पहुंचने की क्षमता देती है . प्रेम का एक सिरा एक तरफ सांसारिक कामनाओं से दूसरा सिरा भक्ति तक जाता है। दूसरे शब्दों में प्रेम कामना और भक्ति के बीच का सेतु है, प्रेम भक्ति नहीं है, प्रेम एक समय पर या कामनाओं के साथ होगा या भक्ति के साथ,  जैसे ही प्रेम काम से दूरी बनाता है वैसे वैसे जीवन में शुद्धता का प्रादुर्भाव होने लगता है प्रेम शुद्ध होने लगता है उसी के साथ जीवन में जीवन मूल्यों से प्रतिबद्धता बढ़ने लगती  है, हम आम जन मानव  कामनाओं को छोड़ कर भी नहीं जी सकते. अत: यहाँ यह स्पष्ट है कि हमें सामंजस्य से ही शुरुआत करनी होगी,  प्रेम जब विशुद्ध होने लगता है तब भी थोड़ा सा काम उसमे शेष रह जाता है परंतु भक्ति आने के साथ ही कामना समाप्त हो जाती है।

कामवासना से ऊपर उठने पर प्रेम की अनुभूति होती है प्रेम की प्रगति ही हम में भक्ति को जन्म देती है,  प्रेम जब तुम दो शरीरों से जोड़ कर करोगे या संसार की किसी वास्तु से करोगे तो ये सब स्थूल हैं। एक स्थूल वास्तु किसी दूसरी में मिल नहीं सकती वे कभी एक नहीं हो सकतीं, अत: जब भी विलग होगी तो दुख और पश्चाताप होना भी स्वाभाविक है, क्योंकि शरीर स्थिर है ठोस है। दो शरीर के बीच की आसक्ति क्षणिक होती है शरीर विलग हुए तो सुख की जगह दूर होने का दर्द ही बचेगा या पश्चताप।

कामवासना से ऊपर आते ही मन प्रेम के प्रभाव में हो जाता है।  प्रेम दो मन के बीच होता है । वे एक भी हो जाते हैं क्योंकी यहाँ मन तरल है। प्रेम जब दो लोगों के बीच है वहां तुम्हें सुख मिलेगा एक तृप्ति मिलेगी।  हम अपने बच्चों को कहीं ज्यादा प्यार करते हैं, कभी घर आने पर एक भी बच्चा ना दिखे तो तुरंत ही मन उसके ना होने को सोच कर प्रश्न करता है कारण जान कर ही शांति मिलती है। पर एक समय आने पर हमें जब उसके बेटे को पढ़ने अपने से दूर भी भेजना होता है तो उसे न दिखने का दुख भूल जाता है उसके उज्वल भविष्य के लिए उसे भेज पाने की खुशी होती है। यहीं है वो प्रेम जहां संतोष मिलता है दूसरी की खुशी पर उसकी उन्नति पर जीवन में ख़ुशी होगी, मिलने पर- दूर होने पर भी उठने वाले दर्द में भी एक सुख मिलेगा। सब कुछ अच्छा ही लगेगा। प्रेम खुद को पूर्ण हो जानेका सुख देगा.. परंतु यहां जो कुछ भी है यहीं है जीवन में जीवन के साथ ही है यहां यों ही सारा जीवन गुजर जाएगा।.

भक्ति इस से विलग है वहां उत्थान है आप के अनंत से मिलन का एहसास है यहां आत्मा प्रगति कर हमें परम शक्ति से जोड़ती है जहां जीवन के अनेको रहस्य आप में ही उजागर होने लगते हैं। हाँ यहां भक्ति के मार्ग पर चलते हुए दो चेतनाएं करीब आने लगती हैं आत्मा और परमात्मा। दो प्रकार की घटाएँ घटती हैं दो पक्ष होते हैं एक बूँद एक सागर । एक सूक्ष्म है एक अत्यंत विराट । यह यात्रा कभी व्यार्थ नहीं जाती जितनी चल सकोगे पुन: यात्रा उसके आगे से ही शुरू होगी। यही मार्ग है जहां आत्मा को परमात्मा से मिलने का अवसर प्राप्त होता है। यहीं मोक्ष है यहीं परम शांति है।

भगवान से प्रेम का अर्थ ये नहीं कि मुझमें परमात्मा के प्रति प्रेम है,,  क्यों कि यहां भी कहीं किसी के प्रति प्रेम नहीं भी हो सकता है, बस यहीं कमी रह जाएगी हमारी भक्ति अधूरी रह जाएगी। ईश्वर से प्रेम करने का अर्थ है आप में सिर्फ प्रेम ही बचेगा, आप जिस किसी से मिलोगे सिर्फ प्रेम होगा एक श्रृद्धा होगी, यहीं है वो अलौकिक घाटना जहां आप सबसे, सब आपसे सिर्फ प्रेम ही कर पाते हैं शेष कुछ नहीं बचता। हम जीवन में जब केवल प्रेम ही रखते हैं, जीवन में मात्र प्रेम बचता है तभी जानो कि आप प्रभु के प्रेम के स्वामी हो जो आपको भक्ति की तरफ ले जाता है.

 प्रेम कोई विरासत में मिलने वाली चीज नहीं, प्रेम प्रकट नहीं है प्रेम का सृजन करना होगा, उसे खुद में जगाना होगा. एक भक्त का प्रेम बिल्कुल निराला होता है, वह अपनी चरम सीमा पर खुद को भी विस्मृत कर बैठता है, उसको अपने होने का भी भान नहीं रहता, उनकी चेतना एक दूसरे में समाहित हो चुकी होती है । प्रेम में कब अपने होने का भाव मिट जाएगा तुम जान भी नहीं पाओगे ,परम प्रेम तभी होगा जब प्रेमी भी ना रह जाए।

आपका प्रेम अब किसी पर निर्भर नहीं है, जब तुम निर्भर हो तुम्हारा प्रेम शुद्ध नहीं हो सकता,, तुम्हारा प्रेम कहीं न कहीं, तुम्हारे प्रेमी से प्रभावित रहे बिना नहीं रह सकता.  । प्रेम में खो जाने पर कोई खुद में कुछ रह नहीं जाता वो तो खुद को भी भूल चुका, जो आज है ही नहीं वो कल को कैसे खोएगा, जो पहले ही मर चुका वो दोबारा क्या मारेगा। यही भक्ति प्रेम रूप है यही हमें अमरता देती है।

 क्योंकि जब हम खुद को पहले ही मार चुके तो अब दोबारा कैसे मरेंगे, वो अमर है। आदमी का अहंकार मरता है वो कभी नहीं मरता। हमें अहंकार को प्रेम के रहते कोई स्थान नहीं मिलता। तुम चाहोगे तो भी खुद को मिटा नहीं सकते। तुम्हारी मृत्यु कभी होती नहीं, कभी हो भी नहीं सकती, तुम सनातन हो, तुम सदा सदा रहोगे। अगर आप अपने को ही भूल गए तो परमात्मा को पाने में कोई अडचन ही ना बची। मै को भूल गए तो बस जीवन के रास्ते खुल गए, मै ही तो है जो परमात्मा को पाने के मार्ग की सबसे बड़ी बाधा है। मै  का भाव हमें पूरी तरह से संलग्न करके रखता है, वो हमारी ऊर्जा को एक दिशा में केन्द्रित नहीं होने देता।

जो कभी मरने की बात करते हैं तो गंभीरता से सोचना उनमें जीवन के प्रति एक गहरी लालसा छुपी होगी। जब  भी लोग आत्महत्या करते हैं तो उनका मतलब ये नहीं कि वे जीना नहीं चाहते थे या जीवन से लगाव नहीं था। , हां जीवन जीने में उनकी कुछ बड़ी शर्ते होंगी, जिंदगी पूरी ना कर  सकी तो जिंदगी से ही नाराज हो गए. जिंदगी तो कोई खत्म नहीं कर सकता तो शायद स्वयं को ही खत्म कर लिया। क्यों कि जीवन जीने की उनमें एक आम आदमी से भी ज्यादा प्रबल इच्छा होती है और जिंदगी के प्रति बहुत ज्यादा गंभीर होते हैं। जिंदगी जीने को  कहीं ज्यादा जद्दो जेहाद की होती है हां आत्मा हत्या भी उनके जीवन को अपनी तरह से जीने की ही एक कोशिश एक तलाश थी।

भक्ति ही मानव जीवन की अंतिम मंजिल है, यही जीवन अपनी पूर्णता को प्राप्त होता है। जीते जी जीवन में इंसान से भगवान बन ने तक की एक विलक्षण यात्रा, यही है जीवन में उपलभ्द प्रेम की ऊर्जा  को उचित सम्मान है ।

पंडित राजेश अवस्थी

ज्योतिर्विद

 

 

 

 

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